आदिवासी क्षेत्रों में खाद्य वस्तुओं की भंडारण समस्या एवं निदान

आदिवासी क्षेत्रों में खाद्य वस्तुओं की भंडारण समस्या एवं निदान

                                  श्रीमती गीता सिंह वैज्ञानिक ;कृषि विस्तार
प्रभारी कृषि विज्ञान केंद्र डिंडोरी ;मध्यप्रदेश जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्व विद्यालय

मध्य भारत, पूर्वी उत्तरी राज्यों, केरल एवं हिमाचल को षिवालिक पर्वतों के उन क्षेत्रों में जो वनो से ढके हुए है, में आदिकाल से अनेक आदिवासी जन जातियां रहती है। जब इन क्षेत्रों में घने जंगल थे, दूर दराज के इलाकों में आना जाना आसान नही था, ये अपनी सभी आवष्यकताओं की पूर्ति वनोपज से पूरी करते थे। मगर जैसे तैसे जंगल कटते गये, आवागमन के साधन में विकास हुआ व ये लोग बाहरी दुनिया के सम्पर्क में आते गये। इनकी आवष्यकताओं में भी परिवर्तन आया, साथ ही वनोपज की उपलब्धता में कमी आती गई, परिणाम स्वरूप धीरे धीरे इन्होनें भी आवष्यकताओं की आपूर्ति वनोपज के साथ साथ खेती से पूरी करनी आरंभ की। जिन क्षेत्रों में यह रहते है उसका अधिकांष भू-भाग पठारी, उंचा नीचा व पथरीला है, तथा सिंचाई का अभाव है। इसलिए आदिवासी क्षेत्रों में मुख्यतयः खरीफ की फसलें जिनमें प्रमुख है:- मक्का, ज्वार, मोटे अनाज (कोदो, कुटकी, सावा आदि) एवं मूंग, उड़द एवं अरहर उगाई जाती है। इन इलाकों में किये गये सर्वेक्षण के आधार पर अनुमान है कि आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामीण स्तर पर भंडारित खाद्यान्न का लगभग 20 प्रतिषत अन्न नष्ट होता है। शेष बचा खाद्यान्न जो उपयोग में लाया जाता है। वह भी उच्च गुणवत्ता वाली नही होता। उनमें कवक आविपों के संदुषण की बहुत संभावना रहती है।
यह भी देखा गया है कि, जो वनोपज उनके द्वारा खाने के लिए उपयोग में लाई जाती है उनके भंडारण की भी हमेषा समस्या रहती है। अतः आसानी से समझने के लिए आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध होने वाली खाद्य सामग्री को दो भागों में बांटा जा सकता है।

(क) कृषि आधारित खाद्य वस्तुओं की भंडारण समस्या:-

अथक परिश्रम से उगाई गई फसलों की इन क्षेत्रों में भंडारण अवधि में सर्वाधिक बरबादी मिलती है जिसके निम्न कारण है:-

1. जिन क्षेत्रों में मुख्यतया खरीफ की फसलें उगाई जाती है उनकी कटाई एवं गहाई के समय अक्सर आसमान में बादल छाये रहते है या वर्षा भी होती रहती है। अतः अधिकांष क्षेत्रों में फसल की कटाई गहाई के समय नमी की मात्रा बहुत अधिक रहती है। एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि इन क्षेत्रों में धान, मक्का व ज्वार में गहाई के समय दानों में नमी की मात्रा 22-28 प्रतिषत रहती है।
2. इन क्षेत्रों में आज भी काफी जंगल होने के कारण देष के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक औसत वर्षा होती है, अतः अक्सर देखा जाता है कि पकी फसल को काटने के बाद गहाई करने के लिए खुला मौसम नही मिलता परिणामस्वरूप मक्का, के भुट्टे एवं ज्वार के गुच्छे काट कर उसी अवस्था में कमरों में भर दिये जाते है क्योंकि काटने के बाद इन्हें पूर्णतया सुखाना संभव नही होता इसलिए भंडारित खाद्यान्न में शीघ्र ही क्षति शुरू हो जाती है।
3. खाद्यान्नों कों सुखाने का एक मात्र तरीका, धूप में सुखाना है। जब कभी ऐसा करना संभव नही हो पाता फसल को पूर्णतया सुखाये बिना ही भंडारण पात्रों में भर दिया जाता है।
4. आज ही इन क्षेत्रों में खाद्यान्न के भंडारण के लिए परंपरागत भंडारण पात्र प्रयोग में लाए जाते है, जिनमें संचयन किए अनाज को बाहरी वातावरण के परिवर्तन से बचाना संभव नही होता है।
5. जिन क्षेत्रों में घने जंगल होते है वहां की वायु में आर्द्रता बहुत अधिक रहती है। जैसा कि बताया गया है इनके घरों में उपयोग लाए जाने वाले भंडारण पात्रों में खाद्य वस्तुओं को बाहरी वातावरण के परिवर्तन से सुरक्षित रखना संभव नही होता। अतः जब जब वातावरण की आपेक्षित आर्द्रता बढ़ती है। भंडारित खाद्य वस्तु में नमी की मात्रा बढ जाती है जैसे ही नमी की मात्रा 11 प्रतिषत से अधिक होती है उसमें कीड़ों का प्रकोप प्रारंभ हो जाता है, जब नमी बढ़ते हुए 12.5 प्रतिषत होती है, उसमें फफंूदी भी सक्रिय होकर खाद्य वस्तुओं की पौष्टिकता को क्षति पहुंचाने लगती है और जैसे ही नमी मात्रा 16 प्रतिषत से अधिक होती है उनमें जीवाणु भी सक्रिय हो जाते है। उनकी वृद्धि होने लगती है। इस तरह धीरे धीरे वह वस्तु पूरी तरह से सड़ जाती है।
6. आदिवासी क्षेत्रों में कृषि आधारित खाद्य वस्तुओं के सही ढ़ंग से भंडारण के ज्ञान का बहुत अभाव है। वे अपनी उपज को आज भी परंपरागत ढंग से रखते है।

(ख) वनोपज आधारित खाद्य पदार्थो की भंडारण समस्या:-

आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाली अधिकांष जनसंख्या का आज भी आय का मुख्य स्त्रोत वनोपज है। प्रमुख वनोपज है:- महुआ, आंवला, तेंदुपत्ता, चिरौंजी व बहड़ा है। वे इन्हें वनों से एकत्र करके, उन्हे बाजार में बेचकर अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करते है साथ ही कुछ मात्रा स्वयं के लिए भी काम में लाते है जिसको वे अपनी परम्परागत तरीके से संचय करके रखते है। इस संस्थान द्वारा मध्यप्रदेष के आदिवासी जिलों में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि महुआ प्रति परिवार औसतन 3 क्विंटल एकत्र किया जाता है जिसका आधा भाग वह महुआ एकत्र करने के तुरंत बाद ही (अप्रैल से जून तक) सस्ते दामों पर बेच देता है, तथा लगभग प्रति परिवार औसतन 1.5 क्विंटल एकत्र किया हुआ महुआ वह भविष्य में बेचने के लिए रखता है। जितना महुआ पैदा होता है उसका अधिकांष भाग उसी के द्वारा उपयोग में लाया जाता है। अतः पुनः अपनी जरूरतों के लिए उन्हीं व्यापारियों से खरीदता है जिन्हें उसने एकत्र करने के समय लगभग 1.5 रू से 3.0 रू प्रति किलों के भाव पर बेचा था। यही अब लगभग 8.0 रू से 12.0 रू तक के भाव में खरीदता है। इस तरह वह अपने द्वारा एकत्र वस्तु पर भी पुनः खरीद में लगभग 6 गुना दाम देता है। यह सब हानि वह इसलिए उठाता है क्योंकि उसको अपनी वनोपज का संचय करने में अनेक समस्याएं है, जिनमें से प्रमुख निम्न हैः-
1. वनोपज को भंडारण करने के लिए उनके पास पर्याप्त व्यवस्था उपलब्ध नही है।
2. जब कोई भी खाद्य पदार्थ एकत्र किया जाता है उसमें नमी बहुत अधिक होती है, उसे शीघ्र सुखाने की कोई व्यवस्था नही रहती है। इस कारण वह शीघ्र ही खराब होने लगती है, जैसे महुआ याआवंले को यदि पूरी तरह नही सुखाया जाये तो उसमें अनेक जैव रसायनिक परिवर्तन होने लगते है। उनका रंग काला होने लगता है जिसका बाजार में सही मूल्य नही मिलता है। साथ ही यह भी पाया गया है कि ऐसे महुआ से जब शराब बनाई जाती है उसकी मात्रा कम प्राप्त होती है तथा उसकी गुणवत्ता भी अच्छी नही रहती है।
3. भंडारण तकनीक की सही पद्धति से परिचित नही है।
4. दूर दराज के क्षेत्रों में वर्षा के मौसम में यातायात संभव नही रहता इसलिए संचित पदार्थ को उन दिनों में बाजार लाना संभव नही होता इस कारण भी उन्हें वर्षा शुरू होने से पहले बेचना ही लाभदायक मानते है।
5. अपनी दैनिक आवष्यकताओं के लिए पैसे की आवष्यकता रहती है, उसको पूरा करने के लिए अपनी उपज व्यापारी को बेच देते है।

समस्या का निदान:-

आदिवासी क्षेत्रों में खाद्य वस्तुओं की बरबादी को रोकने के लिए निम्न उपाय किए जाने चाहिए:-

1. भंडारण में होने वाली सभी प्रकार की क्षति को रोकने के लिए सबसे आवष्यक है कि सभी खाद्य वस्तुओं को सुरक्षित नमी अंष तक सुखाया जाए।
2. हमारे देष में आज ऐसे अनेक सुखाई यंत्र विकसित हुए है जिनकी मदद से खाद्यान्न एवं वनोपज सुखाना बड़ा सरल है। सुखाने पर खर्च भी बहुत कम रहता है। अतः सरकारी, पंचायत एवं स्वयं सेवी संस्थाओं के सहयोग से इन क्षेत्रों में सुखाई यंत्र लगाए जाने चाहिए।
3. वैज्ञानिक ढ़ंग से अन्न भंडारण व वनोपज संचय से संबंधित कार्यमाला को आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
4. अनेक आदिवासी क्षेत्रों में धान्य बैंक विभिन्न स्वयं सेवी संस्थाओं एवं सरकार के सहयोग से स्थापित किए गए है उनके पदाधिकारियो को वैज्ञानिक ढ़ंग से अन्न भंडारण विषय पर प्रषिक्षण दिया जाना चाहिए तथा उनके धान्य बैंको के लिए आधुनिक भंडारण पात्र उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
5. आदिवासी क्षेत्रों में उपयोग में लाये जाने वाले परम्परागत पात्रों में सुधार कराया जाना चाहिए तथा इस संस्थान द्वारा इन क्षेत्रों के लिए उपयोगी कुछ सुधरे भंडारण पात्र विकसित किए है, उनका निर्माण कराया जाना चाहिए।
6. आदिवासियों को सही ढ़ंग से खाद्यान्नों एवं महुआ भंडारण की विकसित तकनीक से अवगत कराने के उपाय किए जाने चाहिए।